ख़ामख़ाह
पिछले पहर
जो बंधने लगी थी
एहसासों की डोरी
तोड़े नहीं टूटती थी
ना जाने क्यों,
नश्तर लगा दिया
आज ख़ुद ही मैंने….
दूर चली
मैं तुझसे
बहुत दूर,
फिर ना मिलने की
उम्मीद में,
कुछ ख्वाबों की
पंखुड़ियां समेटे थी
हथेलियों में
कभी मैंने
उड़ा दिया
इक-इक कर के
खुले आसमान में,
कल जो बरसेगा
कोई सावन
आँखें बरसेंगी
तेरी भी तब
कोई हवा
गुज़रेगी जब
पेशानी छूकर तेरे
इक कसकती याद
धड़केगी
तेरे दिल में भी
पूछेगी वो तुझसे
उन सिसकते
लम्हों की दास्ताँ
जो कभी लिखे थे
समंदर ने
अपने लहरों पे
बस यूँ ही
फ़िज़ा में जो
घुल गए
कुछ लम्हों की
लेकर इक
गुज़ारिश
© ममता शर्मा