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ख़ामख़ाह….

ख़ामख़ाह पिछले पहर जो बंधने लगी थी एहसासों की डोरी तोड़े नहीं टूटती थी ना जाने क्यों, नश्तर लगा दिया आज ख़ुद ही मैंने…. दूर चली मैं तुझसे बहुत दूर, फिर ना मिलने की उम्मीद में, कुछ ख्वाबों की पंखुड़ियां…

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ख़ुशी

आधी रात की ख़ुमारी रेलवे स्टेशन की अजब सी ख़ुशबू आती जाती ट्रेनें और गूंजती उनकी आवाज़ें गुलाबी सी ठंड और इक इंतज़ार सेलफ़ोन की बैटरी का रूठना उस पल न समझ में आई मजबूरन की हुई प्लेटफार्म पे चहलकदमियां…

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इल्तिजा

बात लबों पे जो आज आई है उसे तो कहने दो पर पास न आओ कुछ दूरी तो दरमियान रहने दो हमने छेड़ी जो ग़ज़ल तो तुम्हे सुनना होगा गर बिखरे अश्कों के फूल तो उन्हें चुनना होगा छेड़ो कोई…

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ख़ामोशी की दस्तक़

आज दी दस्तक़ फिर उसने आख़िर पूरे साल में कांधे पे इक गर्म शॉल और आँखों में इक ख़ामोशी…. पूछ लिया दरवाज़े पर ही अनगिनत सवाल कहा मैंने अब आ भी जाओ थोड़ा ठहरो बैठ भी जाओ कुछ तो अपनी थकन उतारो…

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अंजुमन

अंजुमन मुश्ताक़ है नज़र तेरे अंजुमन में आज, बेक़रार दिल को तेरी आरज़ू भी है , कौन चाहता है कि शब यूँ ढले. इंतेज़ार में शब-ए-महताब है  -ममता

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