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ऐ ज़िन्दगी

ऐ ज़िन्दगी कभी कभी मिसरे पे जां यूँ अटके ज़िन्दगी ऐसे गीत तू क्यों गा रही है तेरे इशारे कुछ समझ ना आये ऐ ज़िन्दगी तू मुझे क्या सिखा रही है राह में इक भरम बिखेर के खलिश-ए-तस्सुवर क्यों करा…

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अरमान

काश….कि कोई हवा चले और यादों का मंज़र संग लिए जाये दर्द भरा ये मौसम बस यूँ ही चुपचाप पिघलता जाए पिघले जैसे आसमान में तपता बादल ठंडी रातों में पतझड़ में शाखों से जो पत्ते बेरहमी से गिरतें हैं…

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बिन पंख उड़ जाऊँं

बिन पंख उड़ जाऊँं बादलों में खो जाऊँ आसमान के गांव में बादलों के छाँव में हवा के सरगोशी के नग़्मे कानों में छम से पिघले मेरे संग तुम आओ ना संग मेरे खो जाओ ना इन नर्गिसी नज़ारों में…

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